भाषा एवं साहित्य >> अच्छी हिन्दी अच्छी हिन्दीरामचन्द्र वर्मा
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आज-कल देश में हिन्दी का जितना अधिक मान है और उसके प्रति जन-साधारण का जितना अधिक अनुराग है, उसे देखते हुए हम कह सकते हैं कि हमारी भाषा सचमुच राष्ट्र-भाषा के पद पर आसीन होती जा रही है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आज-कल देश में हिन्दी का जितना अधिक मान है और उसके प्रति जन-साधारण का
जितना अधिक अनुराग है, उसे देखते हुए हम कह सकते हैं कि हमारी भाषा सचमुच
राष्ट्र-भाषा के पद पर आसीन होती जा रही है। लोग गला फाड़कर चिल्लाते हैं
कि राज-काज में, रेड़ियों में, देशी रियासतों में सब जगह हिन्दी का प्रचार
करना चाहिए; पर वे कभी आँख उठाकर यह नहीं देखते कि हम स्वयं कैसी हिन्दी
लिखते हैं। मैं ऐसे लोगो को बतलाना चाहता हूँ कि, हमारी भाषा में
उच्छृंखलता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। किसी को हमारी भाषा का
कलेवर विकृत करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। देश के अनेक ऐसे प्रांतों
में हिन्दी का जोरों से प्रचार हो रहा है, जहाँ की मातृ-भाषा हिन्दी नहीं
है। अत: हिन्दी का स्वरूप निश्चित और स्थिर करने का सबसे बड़ा
उत्तरदायित्व उत्तर भारत के हिन्दी लेखकों पर ही है। उन्हें यह सोचना
चाहिए कि हमारी लिखी हुई भद्दी, अशुद्ध और बे-मुहावरे भाषा का अन्य
प्रान्तवालों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, और भाषा के क्षेत्र में हमारा यह पतन
उन लोगों को कहाँ ले जाकर पटकेगा। इसी बात का ध्यान रखते हुए पूज्य
अम्बिका प्रसाद जी वाजपेयी ने कुछ दिन पहले हिन्दी के एक
प्रसिद्ध लेखक और प्रचारक से कहा था- ‘‘आप अन्य प्रान्तों के निवासियों
को हिन्दी पढ़ा रहे हैं और उन्हें अपना व्याकरण भी दे रहे हैं। पर जल्दी
ही वह समय आएगा, जब कि वही लोग आपके ही व्याकरण से
आपकी भूलें दिखाएँगे।’’ यह मानो भाषा की अशुद्धियों वाले
व्यापक तत्त्व की ओर गूढ़ संकेत था। जब हमारी समझ में यह तत्त्व अच्छी तरह
आ जाएगा, तब हम भाषा लिखने में बहुत सचेत होने लगेंगे। और मैं समझता हूँ
कि हमारी भाषा की वास्तविकता उन्नति का आरम्भ भी उसी दिन से होगा।
भाषा वह साधन है, जिससे हम अपने अपने मन के भाव दूसरों के प्रकट करते हैं। वस्तुत: यह मन के भाव प्रकट करने का ढंग या प्रकार मात्र है। अपने परम प्रचलित और सीमित अर्थ में भाषा के अन्तर्गत वे सार्थक शब्द भी आते हैं, जो हम बोलते हैं और उन शब्दों के वे क्रम भी आते हैं, जो हम लगाते हैं। हमारे मन में समय-समय पर विचार, भाव, इच्छाएँ, अनुभूतियों आदि उत्पन्न होती हैं, वही हम अपनी भाषा के द्वारा, चाहे बोलकर, चाहे लिखकर, चाहे किसी संकेत से दूसरों पर प्रकट करते हैं, कभी-कभी हम अपने मुख की कुछ विशेष प्रकार की आकृति बनाकर या भावभंगी आदि से भी अपने विचार और भाव एक सीमा तक प्रकट करते हैं पर भाव प्रकट करने के ये सब प्रकार हमारे विचार प्रकट करने में उतने अधिक सहायक नहीं होते जितनी बोली जानेवाली भाषा होती है। यह ठीक है कि कुछ चरम अवस्थाओं में मन का कोई विशेष भाव किसी अवसर पर मूक रहकर या फिर कुछ विशिष्ट मुद्राओं से प्रकट किया जाता है और इसीलिए ‘मूक अभिनय’ भी ‘अभिनय’ का एक उत्कृष्ट प्रकार माना जाता है। पर साधारणत: मन के भाव प्रकट करने का सबसे अच्छा, सुगम और सब लोगों के लिए सुलभ उपाय भाषा ही है।
भाषा वह साधन है, जिससे हम अपने अपने मन के भाव दूसरों के प्रकट करते हैं। वस्तुत: यह मन के भाव प्रकट करने का ढंग या प्रकार मात्र है। अपने परम प्रचलित और सीमित अर्थ में भाषा के अन्तर्गत वे सार्थक शब्द भी आते हैं, जो हम बोलते हैं और उन शब्दों के वे क्रम भी आते हैं, जो हम लगाते हैं। हमारे मन में समय-समय पर विचार, भाव, इच्छाएँ, अनुभूतियों आदि उत्पन्न होती हैं, वही हम अपनी भाषा के द्वारा, चाहे बोलकर, चाहे लिखकर, चाहे किसी संकेत से दूसरों पर प्रकट करते हैं, कभी-कभी हम अपने मुख की कुछ विशेष प्रकार की आकृति बनाकर या भावभंगी आदि से भी अपने विचार और भाव एक सीमा तक प्रकट करते हैं पर भाव प्रकट करने के ये सब प्रकार हमारे विचार प्रकट करने में उतने अधिक सहायक नहीं होते जितनी बोली जानेवाली भाषा होती है। यह ठीक है कि कुछ चरम अवस्थाओं में मन का कोई विशेष भाव किसी अवसर पर मूक रहकर या फिर कुछ विशिष्ट मुद्राओं से प्रकट किया जाता है और इसीलिए ‘मूक अभिनय’ भी ‘अभिनय’ का एक उत्कृष्ट प्रकार माना जाता है। पर साधारणत: मन के भाव प्रकट करने का सबसे अच्छा, सुगम और सब लोगों के लिए सुलभ उपाय भाषा ही है।
पहले संस्करण की भूमिका
दूसरों के दोष ढूँढ़ते फिरना कोई अच्छी बात नहीं है। नीति और धर्म दोनों
इसे बुरा कहते हैं। परन्तु मैं अपने दुर्भाग्य को क्या कहूँ ? मुझे आरम्भ
से ही कुछ ऐसी दूषित प्रवृत्ति प्राप्ति हुई थी, जो बलपूर्वक मेरा ध्यान-
चाहे एक विशिष्ट क्षेत्र में ही सही- दूसरों के दोषों की ओर आकृष्ट करती
थी। वह क्षेत्र या भाषा का।
इस ईसवी शत्बादी के बिल्कुल आरम्भिक सनों में, जब कि मेरी अवस्था बारह-तेरह वर्ष की ही थी और मैं हरिश्चन्द्र स्कूल के चौथे-पाँचवें दरजें में पढ़ता था; मैं अपने सहपाठियों को अशुद्ध बोलने पर प्राय: टोका करता था। पहले तो कुछ दिनों तक मेरे सहपाठी मेरी हँसी उड़ाते थे। पर धीरे-धीरे उनकी समझ में आने लगा कि मैं उन्हें जो कुछ बतलाता हूँ, ठीक बतलाता हूँ। फिर तो और लड़के भी दूसरों की भाषा-संबंधी भूलें पकड़ने लगे। कभी-कभी उन लोगों में झगड़ा भी हो जाती था। कोई कहता था कि यह प्रयोग ठीक है; और कोई कहता था कि नहीं, यह ठीक है। उस समय निर्णय लेने के लिए वे मेरे पास आते थे। मैं लज्जित भी होता था, संकुचित भी। कारण यह कि उनमें कुछ ऐसे लड़के होते थे, जो अवस्था में भी मुझसे बड़े होते थे और पढ़ते भी ऊँचे दरजे में थे। फिर भी मैं अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार बतला देता था कि क्या ठीक है और क्या ठीक नहीं है। और उस समय मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहता था जब मैं देखता कि मेरे निर्णय से दोनों पक्षों का समाधान हो गया ! फिर भी वह सब था लड़कपन का खिलवाड़ ही।
उन्हीं दिनों मैं अपने सहपाठी स्व० बा० श्रीकृष्ण वर्मा के साथ उनके भारत-जीवन प्रेस में जाने लगा था। उनके चाचा स्व० बाबू रामकृष्ण वर्मा ने उन दिनों जीवित थे। काशी में उस जमाने में भारत-जीवन प्रेस ही हिन्दी के दिग्गज साहित्यज्ञों का सबसे बड़ा केन्द्र था। वहीं मुझे पहले-पहल स्व० श्री जगन्नाथदासजी रत्नाकर, पं० किशोरीलालजी गोस्वामी, बाबू देवकीनन्दन खत्री, बाबू कार्तिकप्रसाद खत्री आदि अनेक पूज्य महानुभावों के दर्शन और सत्संग का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। समय-समय पर अनेक बाहरी विद्वान भी वहाँ आया करते थे। बा० रामकृष्ण वर्मा उन लोगों के सामने मुझे बुलाकर बैठा देते थे और लोगों से तरह-तरह के उलटे-सीधे वाक्य बनवाकर मुझसे उनके शुद्ध रूप पूछा करते थे। शुद्ध रूप बतलाने पर अनेक बार मुझे उन पूज्य महानुभावों से आशीर्वाद भी मिला करता था। इस प्रकार धीरे-धीरे मानो मुझे भाषा शुद्ध करने की शिक्षा भी मिलने लगी। परन्तु वह भी लड़कपन का खिलवाड़ ही था।
स्कूल में मेरी दूसरी भाषा उर्दू थी। हिन्दी मैं बिल्कुल नहीं जानता था भारत-जीवन में ही मैंने पहले-पहल हिन्दी सीखी; और वहीं से मुझे हिन्दी का शौक शुरू हुआ। यह बात सन् 1903 की है। उस समय किसी बात में कोई गम्भीरता नहीं थी। बारह-तेरह वर्ष के बालक में गम्भीरता की कैसी हो सकती थी ! पिर बी ज्ञान का कुछ-कुछ बीजारोपण हो चला था।
भाषा के दोषों पर पहले-पहल कुछ गम्भीरतापूर्वक विचार करने का अवसर मुझे शायद सन् 1907-8 में मिला था। उन दिनों काशी से एक औपन्यासिक मासिक पत्र निकला करता था। एक दिन उसके कार्यालय की ओर नीले रंग का छपा हुआ एक ऐसा पोस्ट-कार्ड ‘भारत-जीवन’ में आया, जिसके चारों और शोकसूचक काला हाशिया लगा था। उस कार्ड पर कार्यालय के व्यवस्थापक की ओर से (कहने की आवश्यकता नहीं कि उस कार्यालय के व्यवस्थापक, संचालक और मासिक-पत्र के सम्पादक सब कुछ एक ही सज्जन थे) लिखा था कि दु:ख है कि इस कार्यालय के ‘अध्यक्ष श्रीयुक्त......के एकमात्र पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण इस मास का अंक ठीक समय पर न निकल सका।’ आदि। ‘भारत-जीवन’ में कई आदमियों ने वह कार्ड पढ़ा, पर किसी का ध्यान उसमें के ‘एकमात्र पिता’ पर न गया। जब मैंने उसे देखा, जब मुझे मासिक-पत्र के सम्पाजक के पिता की मृत्यु का दु:ख हुआ ही- कारण यह कि सम्पादक जी स्कूल में मेरे सहपाठी रह चुके थे- पर उससे भी अधिक दु:ख इस बात का हुआ कि उन्होंने ‘एकमात्र’ का अर्थ बिना समझे ही उसे अपने ‘पिता’ के आगे लगा दिया था। उन्होंने कहीं किसी समाचार-पत्र में पढ़ा होगा कि अमुक सज्जन के एकमात्र पुत्र का देहान्त हो गया। बस, उन्होंने वहीं ‘एकमात्र’ अपने ‘पिता’ के साथ लगा दिया था। चलिए, भाषा मुहावरेदार हो गई !
उसी दिन से मैं भाषा के दोषों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगा। उन दिनों भी भाषा में दोष होते थे। पर उतने अधिक नहीं, जितने आज-कल दिखाई देते हैं। थोड़े से लोग हिन्दी लिखना सीखकर तब लिखते थे, वह समझ-बूझकर लिखते थे और कुछ दिनों तक हिन्दी लिखना सीखकर तब लिखते थे। न तो आज-कल की तरह लेखकों की अधिकता था और न धाँधली। तब से अब तक प्राय: सभी क्षेत्रों में हिन्दी की बहुत अधिक उन्नति हुई है- आश्चर्यजनक उन्नति हुई है। देश के कोने-कोने में बहुत-से हिन्दी लेखक पैदा हो गए हैं। सभी उसे राष्ट्र-भाषा कहते हैं, सभी उसे राजःभाषा की जितनी अधिक दुर्दशा आज देखने में आती हैं, उतनी पहले कभी नहीं आई। आज-कल तो यह प्रथा-सी चल गई है कि स्कूल या कालेज से निकले- चाहे पास होकर, चाहे फेल होकर- और हाथ धोकर पड़ गये बेचारी हिन्दी के पीछे। यदि सौभाग्यवश किसी समाचार-पत्र के कार्यालय में जैसे-तैसे कोई छोटी-मोटी जगह मिल गई और वहाँ चार-छह महीने टिक गये, तो फिर क्या पूछना ! अब उनके मुकाबले में कोई हिन्दी लेखक ठहर नहीं सकता। सबके दोष निकालना, सबकी निन्दा करना, सबकी टीका करना और सबके लिए कहना कि उन्हें आता ही क्या है ! जो नए दिग्गज तुच्छ ठहराने में संकोच नहीं करते; और स्वयं नितान्त अशुद्ध, भद्दी और ऊँट-पटाँग भाषा में बे-सिर-पैर की बातें लिखने या अशुद्ध अनुवाद करने के सिवा और कुछ नहीं जानते। किसी के पास कुछ दिनों तक बैठकर कुछ सीखना या किसी से पूछना तो वे अपना अपमान समझते हैं ! यदि कोई दया करके उन्हें कुछ बतलाना भी चाहे तो वे उसका अनादर भले ही न कर सकें, फिर भी उसे उपेक्ष्य समझेंगे। दुर्भाग्यवश ऐसे लेखकों की संख्या आज-कल हिन्दी में बराबर बढ़ती जा रही है।
प्राय: तीस वर्षों से हर साल हिन्दी साहित्य-सम्मेलन के अधिवेशन धूम-धाम से होते हैं। उनमें बड़े-बड़े पूज्य विद्वान् एकत्र होते हैं। उनमें भी अधिक आदरणीय विद्वान् उनके सभापति होते हैं। भाषणों में हिन्दी के सभी अंगों की उन्नति के उपाय बतलाये जाते हैं। परन्तु भाषा की शुद्धता का कभी कोई प्रश्न ही किसी के सामने नहीं आया। स्वयं भाषा का स्वरूप विशुद्ध रखने के संबंध में कभी कोई एक शब्द भी नहीं कहता। शायद इसकी आवश्यकता ही नहीं समझी जाती। और आवश्यकता समझी ही क्यों जाने लगी ! हिन्दी हमारी मातृ-भाषा जो ठहरी। उसे हम जिस रूप में लिखेंगे वही रूप शुद्ध होगा !
समाचार-पत्र, मासिक-पत्र, पुस्तकें सभी कुछ देख जाइए। इन सबमें भाषा की समान रूप से दुर्दशा दिखाई देगी। छोटे और बड़े सभी तरह के लेखक भूलें करते हैं और प्राय: बहुत बड़ी-बड़ी भूलें करते हैं।
हिन्दी में बहुत बड़े और प्रतिष्ठित माने जाने वाले ऐसे अनेक लेखक और पत्र हैं, जिनकी एक ही पुस्तक अथवा एक ही अंक में से भाषा-संबंधी सौकड़ों तरह की भीलों के उदाहरण एकत्र किये जा सकते हैं। पर आश्चर्य है कि बहुत ही कं लोगों का ध्यान उन भूलों की ओर जाता है। भाषा-संबंधी भूलें बिल्कुल आम बात हो गई है। विद्यार्थियों के लिए लिखी जानेवाली पाठ्य-पुस्तकों तक की भाषा बहुत लचर होती है। यहाँ तक कि व्याकरण भी, जो शुद्ध भाषा सिखलाने के लिखे जाते हैं, भाषा-संबंधी दोषों से रहित नहीं होते। जिन क्षेत्रों में हमें सबसे अधिक शुद्ध और परिमार्जित भाषा मिलनी चाहिए जब उन्हीं क्षेत्रों में हमें भद्दी और गलत भाषा मिलती है, तब बहुत अधिक दु:ख और निराशा होती है। मेरे परम प्रिय औप मान्य मित्र स्व० पं० रामचन्द्र शुक्ल भी भाषा की यह दुर्दशा देखकर बहुत दु:खी होते थे। हिन्दी शब्द-सागर कता सम्पादन करते समय हम लोगों को हिन्दी साहित्य के सभी अंगों का सिंहावलोकन करना पड़ा था। उस समय भाषा संबंधी अनेक भूलें और विलक्षणताएँ हम लोगों के आठ प्रतिष्ठित तथा मान्य दिवंगत लेखकतों और आठ वैसे ही जीवित लेखकों की मुख्य-मुख्य रचनाएँ एकत्र की जायँ, और उनमें से भाषा के जोष निकालकर इस दृष्टि से हिन्दी जगत् के सामने रखें जायँ, और उनमें से भाषा के दोषों और भूलों से बचें। उस समय हम लोगों ने इस विषय का कुछ कार्य आरम्भ भी किया था और एक-दो पुस्तकों से भूलें चुनी भी थीं। परन्तु इनके थोड़े ही दिनों बाद शुक्ल जी नागरी-प्रचारिणी सभा का कोश-विभाग छोड़कर हिन्दू विश्व-विद्यालय में चले गये और मैं वहाँ अकेला पड़ गया। अत: वह काम उस समय जहाँ का तहाँ रह गया। कोई चार वर्ष पूर्व वह काम मैंने नए सिरे से आरम्भ किया था, और उसका फल इस पुस्तक के रूप में पाठकों के सम्मुख उपस्थित किया जा रहा है।
कुछ दिन पहले एर साहित्यिक झगड़े के प्रसंग में स्थानीय दैनिक ‘आज’ से श्री ‘वृहस्पति’ का एक लेख निकला था। उनमें एक स्थल पर लिखा था- ‘इस समय हिन्दी बहुत उन्नत हो चुकने पर भी वैसी ही है, जैसे बिना एक मार्ग-दर्शक के सिर पर बोझ लादे1 कोई पथिक बियाबान में निरुद्देश्य चला जा रहा हो।’ उन्होंने यह भी लिखा था- ‘छोटा हो, बड़ा हो, हिन्दी में सभी तीसमार खाँ हैं।’ मैं समझता हूँ, ये दोनों बातें अक्षरश: सत्य हैं। मैं मार्ग-दर्शक बनने का दावा तो नहीं करता। पर हाँ, यह जरूर बतला देना चाहता हूँ कि भाषा के क्षेत्र में लोग क्यों, कहाँ और कैसे भटक रहे हैं।
आज-कल सभी बातों में नयापन ढूँढ़ते हैं और अपनी कृतियों में कुछ-न-कुछ नयापन लाना चाहते हैं। उनमें वह प्रतिभा तो होती नहीं, जो सद्विचारों की जननी है। हाँ, उनके मस्तिष्क पर अँगरेजी का घटाटोप लिखते समय अवश्य छाया रहता है। मैं कई ऐसे सज्जनों को जानता हूँ, जो अँगरेजी लिखते समय तो भाषा की शुद्धता का बहुत अधिक ध्यान रखते
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1. और वह भी दिन-पर-दिन बढ़ता हुआ। -लेखक
है, पर हिन्दी लिखते समय शुद्धता का ध्यान रखने की कोई आवश्यकता नहीं समझते। अपनी भाशा की प्रकृति से वे लोग बिल्कुल अपरिचित होते हैं और हर बात में अँगरेजी का अनुकरण करते है और उसी की शरण लेते हैं। यही कारण है कि आज-कल जटिल और निरर्थक भाषा लिखने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। न तो कोई यह सोचता है कि हमारी इस कुप्रवृत्ति के कारण भाषा में कितना भद्दापन आता है, न कोई यह देखता है कि हम अर्थ और अभिप्राय से कितनी दूर हटते चले जाते हैं। लोगों को इस कुमार्ग से बचाने के लिए ही यह तुच्छ प्रयत्न किया गया है।
आज-कल देश में हिन्दी का जितना अधिक मान है और उसके प्रति-जन-साधारण का जितना अधिक अनुराग है, उसे देखते कह कहते हैं कि हमारी भाषा सचमुच राष्ट्र-भाषा के पद पर आसीन होती जा रही है। लोग गला फाड़कर चिल्लाते हैं कि राज-काज में, रेडियों में, देशी रियासतों में सब जगह हिन्दी का प्रचार करना चाहिए; पर वे कभी आँख उठाकर यह नहीं देखते कि हम स्वयं कैसी हिन्दी लिखते हैं। मैं ऐसे लोंगों को बतलाना चाहता हूँ कि हमारी भाषा में उच्छृंखलता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। किसी को हमारी भाषा का कलेवर विकृत करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। देश के अनेक ऐसे प्रांतों में हिन्दी का जोरों से प्रचार हो रहा है, जहाँ की मातृ-भाषा हिन्दी नहीं है। अत: हिन्दी का स्वरूप निश्चित और स्थिर करने का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व उत्तर भारत के हिन्दी लेखकों पर ही है। उन्हें यह सोचना चाहिए कि हमारी लिखी हुई भद्दी, अशुद्ध बे-मुहावरे भाषा का कुछ प्रान्तवालों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, और भाषा के क्षेत्र में हमारा यह पतन उन लोगों को कहाँ ले जाकर पटकेगा। इसी बात का ध्यान रखते हुए पूज्य अम्बिका प्रसाद जी वाजपेयी ने कुछ दिन पहले हिन्दी के एक प्रसिद्ध लेखक और प्रचारक से कहा था- ‘‘आप अन्य प्रान्तों के निवासियों को हिन्दी पढ़ा रहे हैं और उन्हें अपना व्याकरण भी दे रहे हैं। पर जल्दी ही वह समय आएगा, जब कि वही लोग आपके ही व्याकरण से आपकी भूलें दिखाएँगे।’’
यह मानो भाषा की अशुद्धियों वाले व्यापक तत्त्व की ओर गूढ़ संकेत था। जब हमारी समझ में यह तत्त्व अच्छी तरह आ जाएगा, तब हम भाषा लिखने में बहुत सचेत होने लगेंगे। और मैं समझता हूँ कि हमारी भाषा की वास्तविक उन्नति का आरम्भ भी उसी दिन से होगा।
मैंने वह समय देखा है, जब कि भाषा पर स्व० बाबू बालमुकुन्द गुप्त बहुत ही कड़ी और तेज निगाह रखते थे। उसके बहुत दिनों बाद तक यह काम स्व० आचार्य महावीरप्रसाद जी द्विवेदी ने अपने हाथ में रखा था। उन दिनों जल्दी किसी को ऊल-जलूल भाषा लिखने का साहस ही नहीं होता था। और यदि कोई नौ-सिखुआ कुछ लिखा भी जाता था, तो उस पर कड़ी फटकार पड़ती थी। पर आज-कल भाषा के क्षेत्र में पूर्ण स्वराज्य है ! पहले तो कोई कुछ कहने वाला ही नहीं। और यदि कभी कोई कुछ कहना भी चाहे, तो आज-कल स्वतन्त्र प्रकृतिवाले नवयुवक किसी की सुनते कब हैं ! खूब मनमानी चल रही है। जिसके जी में जो आता है, वही लिख चलता है। और छापनेवाले भी आँखें बन्द करके छाप चलते हैं। इसलिए हिन्दीवालों के प्रति मेरा यह विद्रोह है। मैंने पहले दो-तीन बार कुछ अवसरों पर हिन्दवालों का ध्यान इस ओर आकृष्ट करना चाहा था। पर नक्कारखाने में तूती की आवाज नहीं सुनी गई। इसीलिए इस बार मुझे विश्वास होकर अपने विचारों को इस पुस्तक का रूप देना पड़ा है। मैं हिन्दीवालों को इस बात के लिए विवश करना चाहता हूँ कि वे अपनी भूलें देखें और सुधारें। वे समझें कि जिस प्रकार- ‘‘आती है उर्दू जबा आते-आते।’’
उसी प्रकार हिन्दी भी लगातार प्रयत्नपूर्वक अध्ययन करने और सीखने पर ही, कुछ समय में, आती है। लेखक बनना ‘खाली जी का घर’ नहीं है। हर आदमी कलम हाथ में लेते ही लेखक नहीं बन सकता। मैं बहुत ही उत्सुकतापूर्वक हिन्दी के उन सौभाग्यपूर्ण दिनों की प्रतीक्षा कर रहा हूँ, जब कि फिर कुछ योग्य और पूज्य विद्वान हाथ में अंकुश लेकर हिन्दीवालों का यह स्वेच्छाचार रोकने का प्रयत्न करेंगे। ईश्वर वे दिन शीघ्र लाएँ। परन्तु जब तक वे दिन नहीं आते, तब तक मैं ही अपने दुर्बल हाथों से उन्हें जगाने और सतर्क करने का प्रयत्न करता हूँ।
अन्त में मैं अपने इस प्रयत्न के विषय में भी कुछ निवेदन कर देना चाहता हूँ। इस पुस्तक के भूलों के सामने उदाहरण दिए गए हैं, वे बहुत ही विस्तृत क्षेत्र में चुने गए हैं और मेरे अब तक सम्पूर्ण संकलन के कदाचित् आधे भी नहीं है। लगभग चालीस वर्षों तक हिन्दी की अल्प सेवा करने में मुझे भाषा के संबंध में जिन बातों का थोड़ा-बहुत ज्ञान हुआ है, उन्हीं का निचोड़ इस पुस्तक में दिया गया है। सभी तरह के समाचार पत्रों, सामयिक पत्रों, पुस्तको, भाषणों और बड़े-बड़े प्रतिष्ठित और मान्य लेखकों तक की भाषा-संबंधी भूलों के अनेक उदाहरण इसमें दिए गए हैं।
इस ईसवी शत्बादी के बिल्कुल आरम्भिक सनों में, जब कि मेरी अवस्था बारह-तेरह वर्ष की ही थी और मैं हरिश्चन्द्र स्कूल के चौथे-पाँचवें दरजें में पढ़ता था; मैं अपने सहपाठियों को अशुद्ध बोलने पर प्राय: टोका करता था। पहले तो कुछ दिनों तक मेरे सहपाठी मेरी हँसी उड़ाते थे। पर धीरे-धीरे उनकी समझ में आने लगा कि मैं उन्हें जो कुछ बतलाता हूँ, ठीक बतलाता हूँ। फिर तो और लड़के भी दूसरों की भाषा-संबंधी भूलें पकड़ने लगे। कभी-कभी उन लोगों में झगड़ा भी हो जाती था। कोई कहता था कि यह प्रयोग ठीक है; और कोई कहता था कि नहीं, यह ठीक है। उस समय निर्णय लेने के लिए वे मेरे पास आते थे। मैं लज्जित भी होता था, संकुचित भी। कारण यह कि उनमें कुछ ऐसे लड़के होते थे, जो अवस्था में भी मुझसे बड़े होते थे और पढ़ते भी ऊँचे दरजे में थे। फिर भी मैं अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार बतला देता था कि क्या ठीक है और क्या ठीक नहीं है। और उस समय मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहता था जब मैं देखता कि मेरे निर्णय से दोनों पक्षों का समाधान हो गया ! फिर भी वह सब था लड़कपन का खिलवाड़ ही।
उन्हीं दिनों मैं अपने सहपाठी स्व० बा० श्रीकृष्ण वर्मा के साथ उनके भारत-जीवन प्रेस में जाने लगा था। उनके चाचा स्व० बाबू रामकृष्ण वर्मा ने उन दिनों जीवित थे। काशी में उस जमाने में भारत-जीवन प्रेस ही हिन्दी के दिग्गज साहित्यज्ञों का सबसे बड़ा केन्द्र था। वहीं मुझे पहले-पहल स्व० श्री जगन्नाथदासजी रत्नाकर, पं० किशोरीलालजी गोस्वामी, बाबू देवकीनन्दन खत्री, बाबू कार्तिकप्रसाद खत्री आदि अनेक पूज्य महानुभावों के दर्शन और सत्संग का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। समय-समय पर अनेक बाहरी विद्वान भी वहाँ आया करते थे। बा० रामकृष्ण वर्मा उन लोगों के सामने मुझे बुलाकर बैठा देते थे और लोगों से तरह-तरह के उलटे-सीधे वाक्य बनवाकर मुझसे उनके शुद्ध रूप पूछा करते थे। शुद्ध रूप बतलाने पर अनेक बार मुझे उन पूज्य महानुभावों से आशीर्वाद भी मिला करता था। इस प्रकार धीरे-धीरे मानो मुझे भाषा शुद्ध करने की शिक्षा भी मिलने लगी। परन्तु वह भी लड़कपन का खिलवाड़ ही था।
स्कूल में मेरी दूसरी भाषा उर्दू थी। हिन्दी मैं बिल्कुल नहीं जानता था भारत-जीवन में ही मैंने पहले-पहल हिन्दी सीखी; और वहीं से मुझे हिन्दी का शौक शुरू हुआ। यह बात सन् 1903 की है। उस समय किसी बात में कोई गम्भीरता नहीं थी। बारह-तेरह वर्ष के बालक में गम्भीरता की कैसी हो सकती थी ! पिर बी ज्ञान का कुछ-कुछ बीजारोपण हो चला था।
भाषा के दोषों पर पहले-पहल कुछ गम्भीरतापूर्वक विचार करने का अवसर मुझे शायद सन् 1907-8 में मिला था। उन दिनों काशी से एक औपन्यासिक मासिक पत्र निकला करता था। एक दिन उसके कार्यालय की ओर नीले रंग का छपा हुआ एक ऐसा पोस्ट-कार्ड ‘भारत-जीवन’ में आया, जिसके चारों और शोकसूचक काला हाशिया लगा था। उस कार्ड पर कार्यालय के व्यवस्थापक की ओर से (कहने की आवश्यकता नहीं कि उस कार्यालय के व्यवस्थापक, संचालक और मासिक-पत्र के सम्पादक सब कुछ एक ही सज्जन थे) लिखा था कि दु:ख है कि इस कार्यालय के ‘अध्यक्ष श्रीयुक्त......के एकमात्र पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण इस मास का अंक ठीक समय पर न निकल सका।’ आदि। ‘भारत-जीवन’ में कई आदमियों ने वह कार्ड पढ़ा, पर किसी का ध्यान उसमें के ‘एकमात्र पिता’ पर न गया। जब मैंने उसे देखा, जब मुझे मासिक-पत्र के सम्पाजक के पिता की मृत्यु का दु:ख हुआ ही- कारण यह कि सम्पादक जी स्कूल में मेरे सहपाठी रह चुके थे- पर उससे भी अधिक दु:ख इस बात का हुआ कि उन्होंने ‘एकमात्र’ का अर्थ बिना समझे ही उसे अपने ‘पिता’ के आगे लगा दिया था। उन्होंने कहीं किसी समाचार-पत्र में पढ़ा होगा कि अमुक सज्जन के एकमात्र पुत्र का देहान्त हो गया। बस, उन्होंने वहीं ‘एकमात्र’ अपने ‘पिता’ के साथ लगा दिया था। चलिए, भाषा मुहावरेदार हो गई !
उसी दिन से मैं भाषा के दोषों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगा। उन दिनों भी भाषा में दोष होते थे। पर उतने अधिक नहीं, जितने आज-कल दिखाई देते हैं। थोड़े से लोग हिन्दी लिखना सीखकर तब लिखते थे, वह समझ-बूझकर लिखते थे और कुछ दिनों तक हिन्दी लिखना सीखकर तब लिखते थे। न तो आज-कल की तरह लेखकों की अधिकता था और न धाँधली। तब से अब तक प्राय: सभी क्षेत्रों में हिन्दी की बहुत अधिक उन्नति हुई है- आश्चर्यजनक उन्नति हुई है। देश के कोने-कोने में बहुत-से हिन्दी लेखक पैदा हो गए हैं। सभी उसे राष्ट्र-भाषा कहते हैं, सभी उसे राजःभाषा की जितनी अधिक दुर्दशा आज देखने में आती हैं, उतनी पहले कभी नहीं आई। आज-कल तो यह प्रथा-सी चल गई है कि स्कूल या कालेज से निकले- चाहे पास होकर, चाहे फेल होकर- और हाथ धोकर पड़ गये बेचारी हिन्दी के पीछे। यदि सौभाग्यवश किसी समाचार-पत्र के कार्यालय में जैसे-तैसे कोई छोटी-मोटी जगह मिल गई और वहाँ चार-छह महीने टिक गये, तो फिर क्या पूछना ! अब उनके मुकाबले में कोई हिन्दी लेखक ठहर नहीं सकता। सबके दोष निकालना, सबकी निन्दा करना, सबकी टीका करना और सबके लिए कहना कि उन्हें आता ही क्या है ! जो नए दिग्गज तुच्छ ठहराने में संकोच नहीं करते; और स्वयं नितान्त अशुद्ध, भद्दी और ऊँट-पटाँग भाषा में बे-सिर-पैर की बातें लिखने या अशुद्ध अनुवाद करने के सिवा और कुछ नहीं जानते। किसी के पास कुछ दिनों तक बैठकर कुछ सीखना या किसी से पूछना तो वे अपना अपमान समझते हैं ! यदि कोई दया करके उन्हें कुछ बतलाना भी चाहे तो वे उसका अनादर भले ही न कर सकें, फिर भी उसे उपेक्ष्य समझेंगे। दुर्भाग्यवश ऐसे लेखकों की संख्या आज-कल हिन्दी में बराबर बढ़ती जा रही है।
प्राय: तीस वर्षों से हर साल हिन्दी साहित्य-सम्मेलन के अधिवेशन धूम-धाम से होते हैं। उनमें बड़े-बड़े पूज्य विद्वान् एकत्र होते हैं। उनमें भी अधिक आदरणीय विद्वान् उनके सभापति होते हैं। भाषणों में हिन्दी के सभी अंगों की उन्नति के उपाय बतलाये जाते हैं। परन्तु भाषा की शुद्धता का कभी कोई प्रश्न ही किसी के सामने नहीं आया। स्वयं भाषा का स्वरूप विशुद्ध रखने के संबंध में कभी कोई एक शब्द भी नहीं कहता। शायद इसकी आवश्यकता ही नहीं समझी जाती। और आवश्यकता समझी ही क्यों जाने लगी ! हिन्दी हमारी मातृ-भाषा जो ठहरी। उसे हम जिस रूप में लिखेंगे वही रूप शुद्ध होगा !
समाचार-पत्र, मासिक-पत्र, पुस्तकें सभी कुछ देख जाइए। इन सबमें भाषा की समान रूप से दुर्दशा दिखाई देगी। छोटे और बड़े सभी तरह के लेखक भूलें करते हैं और प्राय: बहुत बड़ी-बड़ी भूलें करते हैं।
हिन्दी में बहुत बड़े और प्रतिष्ठित माने जाने वाले ऐसे अनेक लेखक और पत्र हैं, जिनकी एक ही पुस्तक अथवा एक ही अंक में से भाषा-संबंधी सौकड़ों तरह की भीलों के उदाहरण एकत्र किये जा सकते हैं। पर आश्चर्य है कि बहुत ही कं लोगों का ध्यान उन भूलों की ओर जाता है। भाषा-संबंधी भूलें बिल्कुल आम बात हो गई है। विद्यार्थियों के लिए लिखी जानेवाली पाठ्य-पुस्तकों तक की भाषा बहुत लचर होती है। यहाँ तक कि व्याकरण भी, जो शुद्ध भाषा सिखलाने के लिखे जाते हैं, भाषा-संबंधी दोषों से रहित नहीं होते। जिन क्षेत्रों में हमें सबसे अधिक शुद्ध और परिमार्जित भाषा मिलनी चाहिए जब उन्हीं क्षेत्रों में हमें भद्दी और गलत भाषा मिलती है, तब बहुत अधिक दु:ख और निराशा होती है। मेरे परम प्रिय औप मान्य मित्र स्व० पं० रामचन्द्र शुक्ल भी भाषा की यह दुर्दशा देखकर बहुत दु:खी होते थे। हिन्दी शब्द-सागर कता सम्पादन करते समय हम लोगों को हिन्दी साहित्य के सभी अंगों का सिंहावलोकन करना पड़ा था। उस समय भाषा संबंधी अनेक भूलें और विलक्षणताएँ हम लोगों के आठ प्रतिष्ठित तथा मान्य दिवंगत लेखकतों और आठ वैसे ही जीवित लेखकों की मुख्य-मुख्य रचनाएँ एकत्र की जायँ, और उनमें से भाषा के जोष निकालकर इस दृष्टि से हिन्दी जगत् के सामने रखें जायँ, और उनमें से भाषा के दोषों और भूलों से बचें। उस समय हम लोगों ने इस विषय का कुछ कार्य आरम्भ भी किया था और एक-दो पुस्तकों से भूलें चुनी भी थीं। परन्तु इनके थोड़े ही दिनों बाद शुक्ल जी नागरी-प्रचारिणी सभा का कोश-विभाग छोड़कर हिन्दू विश्व-विद्यालय में चले गये और मैं वहाँ अकेला पड़ गया। अत: वह काम उस समय जहाँ का तहाँ रह गया। कोई चार वर्ष पूर्व वह काम मैंने नए सिरे से आरम्भ किया था, और उसका फल इस पुस्तक के रूप में पाठकों के सम्मुख उपस्थित किया जा रहा है।
कुछ दिन पहले एर साहित्यिक झगड़े के प्रसंग में स्थानीय दैनिक ‘आज’ से श्री ‘वृहस्पति’ का एक लेख निकला था। उनमें एक स्थल पर लिखा था- ‘इस समय हिन्दी बहुत उन्नत हो चुकने पर भी वैसी ही है, जैसे बिना एक मार्ग-दर्शक के सिर पर बोझ लादे1 कोई पथिक बियाबान में निरुद्देश्य चला जा रहा हो।’ उन्होंने यह भी लिखा था- ‘छोटा हो, बड़ा हो, हिन्दी में सभी तीसमार खाँ हैं।’ मैं समझता हूँ, ये दोनों बातें अक्षरश: सत्य हैं। मैं मार्ग-दर्शक बनने का दावा तो नहीं करता। पर हाँ, यह जरूर बतला देना चाहता हूँ कि भाषा के क्षेत्र में लोग क्यों, कहाँ और कैसे भटक रहे हैं।
आज-कल सभी बातों में नयापन ढूँढ़ते हैं और अपनी कृतियों में कुछ-न-कुछ नयापन लाना चाहते हैं। उनमें वह प्रतिभा तो होती नहीं, जो सद्विचारों की जननी है। हाँ, उनके मस्तिष्क पर अँगरेजी का घटाटोप लिखते समय अवश्य छाया रहता है। मैं कई ऐसे सज्जनों को जानता हूँ, जो अँगरेजी लिखते समय तो भाषा की शुद्धता का बहुत अधिक ध्यान रखते
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1. और वह भी दिन-पर-दिन बढ़ता हुआ। -लेखक
है, पर हिन्दी लिखते समय शुद्धता का ध्यान रखने की कोई आवश्यकता नहीं समझते। अपनी भाशा की प्रकृति से वे लोग बिल्कुल अपरिचित होते हैं और हर बात में अँगरेजी का अनुकरण करते है और उसी की शरण लेते हैं। यही कारण है कि आज-कल जटिल और निरर्थक भाषा लिखने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। न तो कोई यह सोचता है कि हमारी इस कुप्रवृत्ति के कारण भाषा में कितना भद्दापन आता है, न कोई यह देखता है कि हम अर्थ और अभिप्राय से कितनी दूर हटते चले जाते हैं। लोगों को इस कुमार्ग से बचाने के लिए ही यह तुच्छ प्रयत्न किया गया है।
आज-कल देश में हिन्दी का जितना अधिक मान है और उसके प्रति-जन-साधारण का जितना अधिक अनुराग है, उसे देखते कह कहते हैं कि हमारी भाषा सचमुच राष्ट्र-भाषा के पद पर आसीन होती जा रही है। लोग गला फाड़कर चिल्लाते हैं कि राज-काज में, रेडियों में, देशी रियासतों में सब जगह हिन्दी का प्रचार करना चाहिए; पर वे कभी आँख उठाकर यह नहीं देखते कि हम स्वयं कैसी हिन्दी लिखते हैं। मैं ऐसे लोंगों को बतलाना चाहता हूँ कि हमारी भाषा में उच्छृंखलता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। किसी को हमारी भाषा का कलेवर विकृत करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। देश के अनेक ऐसे प्रांतों में हिन्दी का जोरों से प्रचार हो रहा है, जहाँ की मातृ-भाषा हिन्दी नहीं है। अत: हिन्दी का स्वरूप निश्चित और स्थिर करने का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व उत्तर भारत के हिन्दी लेखकों पर ही है। उन्हें यह सोचना चाहिए कि हमारी लिखी हुई भद्दी, अशुद्ध बे-मुहावरे भाषा का कुछ प्रान्तवालों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, और भाषा के क्षेत्र में हमारा यह पतन उन लोगों को कहाँ ले जाकर पटकेगा। इसी बात का ध्यान रखते हुए पूज्य अम्बिका प्रसाद जी वाजपेयी ने कुछ दिन पहले हिन्दी के एक प्रसिद्ध लेखक और प्रचारक से कहा था- ‘‘आप अन्य प्रान्तों के निवासियों को हिन्दी पढ़ा रहे हैं और उन्हें अपना व्याकरण भी दे रहे हैं। पर जल्दी ही वह समय आएगा, जब कि वही लोग आपके ही व्याकरण से आपकी भूलें दिखाएँगे।’’
यह मानो भाषा की अशुद्धियों वाले व्यापक तत्त्व की ओर गूढ़ संकेत था। जब हमारी समझ में यह तत्त्व अच्छी तरह आ जाएगा, तब हम भाषा लिखने में बहुत सचेत होने लगेंगे। और मैं समझता हूँ कि हमारी भाषा की वास्तविक उन्नति का आरम्भ भी उसी दिन से होगा।
मैंने वह समय देखा है, जब कि भाषा पर स्व० बाबू बालमुकुन्द गुप्त बहुत ही कड़ी और तेज निगाह रखते थे। उसके बहुत दिनों बाद तक यह काम स्व० आचार्य महावीरप्रसाद जी द्विवेदी ने अपने हाथ में रखा था। उन दिनों जल्दी किसी को ऊल-जलूल भाषा लिखने का साहस ही नहीं होता था। और यदि कोई नौ-सिखुआ कुछ लिखा भी जाता था, तो उस पर कड़ी फटकार पड़ती थी। पर आज-कल भाषा के क्षेत्र में पूर्ण स्वराज्य है ! पहले तो कोई कुछ कहने वाला ही नहीं। और यदि कभी कोई कुछ कहना भी चाहे, तो आज-कल स्वतन्त्र प्रकृतिवाले नवयुवक किसी की सुनते कब हैं ! खूब मनमानी चल रही है। जिसके जी में जो आता है, वही लिख चलता है। और छापनेवाले भी आँखें बन्द करके छाप चलते हैं। इसलिए हिन्दीवालों के प्रति मेरा यह विद्रोह है। मैंने पहले दो-तीन बार कुछ अवसरों पर हिन्दवालों का ध्यान इस ओर आकृष्ट करना चाहा था। पर नक्कारखाने में तूती की आवाज नहीं सुनी गई। इसीलिए इस बार मुझे विश्वास होकर अपने विचारों को इस पुस्तक का रूप देना पड़ा है। मैं हिन्दीवालों को इस बात के लिए विवश करना चाहता हूँ कि वे अपनी भूलें देखें और सुधारें। वे समझें कि जिस प्रकार- ‘‘आती है उर्दू जबा आते-आते।’’
उसी प्रकार हिन्दी भी लगातार प्रयत्नपूर्वक अध्ययन करने और सीखने पर ही, कुछ समय में, आती है। लेखक बनना ‘खाली जी का घर’ नहीं है। हर आदमी कलम हाथ में लेते ही लेखक नहीं बन सकता। मैं बहुत ही उत्सुकतापूर्वक हिन्दी के उन सौभाग्यपूर्ण दिनों की प्रतीक्षा कर रहा हूँ, जब कि फिर कुछ योग्य और पूज्य विद्वान हाथ में अंकुश लेकर हिन्दीवालों का यह स्वेच्छाचार रोकने का प्रयत्न करेंगे। ईश्वर वे दिन शीघ्र लाएँ। परन्तु जब तक वे दिन नहीं आते, तब तक मैं ही अपने दुर्बल हाथों से उन्हें जगाने और सतर्क करने का प्रयत्न करता हूँ।
अन्त में मैं अपने इस प्रयत्न के विषय में भी कुछ निवेदन कर देना चाहता हूँ। इस पुस्तक के भूलों के सामने उदाहरण दिए गए हैं, वे बहुत ही विस्तृत क्षेत्र में चुने गए हैं और मेरे अब तक सम्पूर्ण संकलन के कदाचित् आधे भी नहीं है। लगभग चालीस वर्षों तक हिन्दी की अल्प सेवा करने में मुझे भाषा के संबंध में जिन बातों का थोड़ा-बहुत ज्ञान हुआ है, उन्हीं का निचोड़ इस पुस्तक में दिया गया है। सभी तरह के समाचार पत्रों, सामयिक पत्रों, पुस्तको, भाषणों और बड़े-बड़े प्रतिष्ठित और मान्य लेखकों तक की भाषा-संबंधी भूलों के अनेक उदाहरण इसमें दिए गए हैं।
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